Saturday, June 19, 2010

ओ पखेरू पंख देदे

ओ पखेरू पंख देदे
कुछ मुझे भी तो गगन के देवता से पूछना है

सृष्टि की रचना
बहुत आसान थी क्या?
या की कौतुहल
हमारी सर्जना है

हम बने निरुपाय सुख
की छांव में जो भागते हैं
भागना ही क्या हमारी
नियति की अभिव्यंजना है

अब उलझना है कहाँ तक भंवर जालों में
बस पखेरू यही सब तो पूछना है

प्रश्न चारो और बिखरे
निरुत्तर हैं सब दिशाए
मोतियों से टूट कर बिखरे हुए
सम्बन्ध बोझिल भावनाए

कौन करता डोरियो को
खींचने का खेल
और कठपुतले बने
सब नाचते बेमेल

बंद क्यों हैं नेह के सीधे सरल सब रास्ते
बस पखेरू यही सब तो पूछना है

ओ पखेरू पंख देदे 
कुछ मुझे भी तो गगन के देवता से पूछना है

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