Saturday, June 5, 2010

दे रही चहु और फेरे

धार पर शमशीर के अब तक चली हूँ
इसलिए अब पैर में चुभता न कोई शूल मेरे

यह युगों से जूझती जलती कथा है
भूमिजा से चल रही दारुण व्यथा है 
वह वनों में भटकती असहाय सीता
रख सकी जो मान पति का थी पुनीता

उस पवित्रा ने न फिर से देह धरी
इसलिए उस सी न जन्मी और नारी
और द्वापर में सती का रूप बदला
द्रोपदी का चीर हरने को यहाँ पुरुषत्व मचला

इस घिनौने कर्म पर रखी पुरुष ने मौन वाणी
आग सी मचली कि सोते से जगे जैसे भवानी
जाग कर तबसे बराबर दे रही चहु और  फेरे

धार पर शमशीर के अब तक चली हूँ
इसलिए अब पैर में चुभता न कोई शूल मेरे 

मौन रह कर अनुगमन अब तक किया है 
भूल थी बस हलाहल को मधु समझ कर पी लिया है
पी लिया विष जल उठी हैं कामनाये
चौंक कर जागी झुलसती सुलगती सी भावनाए

अब सुनहले स्वप्न दे चलना कठिन है
घुन्घरुओ की खनक ले चलना कठिन है
बढ़ चुका है मान हमसे देश घर परिवार सबका 
सर उठा कर हम खड़े हैं छोड़ कर अब मोह घर का 

देवियों की भांति पुजने के लिए आये नहीं हम 
दानवी कह कर न सर पर अब चढाओ धुल मेरे 
धार पर शमशीर के अब तक चली हूँ
इसलिए अब पैर में चुभता न कोई शूल मेरे 


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