टूटता है स्वप्न दर्शी मन
दूर तक आक्रोश का सागर
विश्बुझी हर लहर चलती है
नाव पर पतवार पथराई
पार जाने को तरसती है
दृष्टि को लगता किनारा मिल गया
किन्तु बढती दूरियां प्रतिक्षण
टूटता है स्वप्न दर्शी मन
क्षितिज तक है हवन की बेदी
हो रही आहुति नमन आचरण की
त्याग तप पर धूल की परते
होड़ है निर्लज्जता के वरन की
आरती के बोल घुटने टेकते
किस विकृति के पूजने होंगे चरण
टूटता है स्वप्न दर्शी मन
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