दीपक मांग रहा उजियारा
बाती झिलमिल रत अँधेरी
नेह बूंद को भटके मांझी
कैसे कहे अँधेरे से वह
ज्योति राशी कब किसने बांटी
अंधियारे ने राह न रोकी
दीपशिखा बस जलती आई
यही ज्योति का दान दिए को
अपना बनकर छलती आई
आज उजाले के द्वारे पर दीपक ने है हाथ पसारा
दीपक मांग रहा उजियारा
सत्ता सुख की महिमा ऐसी
बचन बद्धता धुल हो गयी
जिसको गरिमा मिली लगा बस
यही समय की भूल हो गयी
क्या सोने वालो को आगे
बढ़कर स्वयं जगाना होगा
पवन पुत्र को शक्ति और
क्षमताये फिर समझाना होगा
उठो! नेह से दीपक भर दो जले दिया मेरे अन्गियारा
दीपक मांग रहा उजियारा
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