Thursday, June 10, 2010

मुट्ठियों में व्यथा

चलो फिर गगन को धरा पर उतारें

सृजन है अधुरा अधूरी कथा है
जनम से बंधी मुट्ठियों में व्यथा है
नयन सीपियों ने छिपाए हैं मोती
बिखरने न पायें बड़ी बात होगी

कि फिर प्राण वीणा पे स्वर को संवारें
चलो फिर गगन को धरा पर उतारें

कहाँ खो गए स्वर कहाँ राग खोये
उनीदे नयन ने न सपने संजोये
खुले द्वार कोई नयी राह निकले
दिशाओं में फैली तमस टूट बिखरे

कि फिर नीड़ में पंछियों को पुकारें
चलो फिर गगन को धरा पर उतारें

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