Sunday, June 27, 2010

उडती जाना सोन चिरैया

पिंजरे बैठी सोन चिरैया
चमचम चूनर चोली पहने
कंगन झूमर जगमग गहने
खिल खिल हस्ती सोन चिरैया
पिंजरे बैठी सोन चिरैया

नयी नयी पिंजरे में आई
मन में सौ सौ सपने लायी
छुई मुई सी कोमल पलके
पुतली में जुगनू से चमके
गुन गुन गाती सोन चिरैया
पिंजरे बैठी सोन चिरैया

पिंजरे का दरवाजा भारी
अन्दर रहने की लाचारी
पलकों के सपने मुरझाये
हर पल पीहर की सुधि लाये
गुमसुम रहती सोन चिरैया
पिंजरे बैठी सोन चिरैया

आंगन का सूनापन टूटा
नन्हे शिशु का रोदन फूटा
भूली पीहर भाई बहना
उसने पाया नया खिलौना
लोरी गाती सोन चिरैया
पिंजरे बैठी सोन चिरैया

पिंजरा तो पिंजरा होता है
चाहे सोने से मंडवा लो
पिजरे के तारो को चाहे
मोती मानिक से जड़वा लो
टुक टुक तकती सोन चिरैया
पिंजरे बैठी सोन चिरैया

बाहर बहती मधुर हवाए
उड़ने को प्रतिपल उकसाए
सोन चिरैया बाहर आओ
बार बार कोई कह जाये
पंख खोलती सोन चिरैया
पिंजरे बैठी सोन चिरैया

पिंजरे का दरवाजा खोला
जुड़े हुए पंखो को तौला
नील गगन से इन्द्रधनुष तक
धरती का कान कान यह बोला
अब न लौटना सोन चिरैया
उडती जाना सोन चिरैया
उडती जाना सोन चिरैया

लौट कर आ पाएंगे क्या फिर सुनहरे दिन

लौट कर आ पाएंगे
क्या फिर सुनहरे दिन

रेत को भी थपथपा
जब घर बनायेंगे
धूप अक्षत फूल से
उसको सजायेंगे

और फिर मकरंद की ले रेशमी डोरी
बांध लेंगे गुनगुनाती रागनी की धुन

लौट कर आ पाएंगे
क्या फिर सुनहरे दिन

प्रात की स्वर्णिम किरण
आह्लाद लाएगी
धूप खिलते फूल सी
मन को लुभाएगी

साँझ फिर ठहरे हुए संवाद को लेकर 
कान में लोरी सुनाये बिन रुके पल छिन

लौट कर आ पाएंगे
क्या फिर सुनहरे दिन

और फिर भी हम नहीं रोये

और फिर भी हम नहीं रोये

दे चुके संत्रास बादल
लौट अपने घर गए
इन्द्रधनुषी रंग लेकर
कुछ गगन से कह गए

प्रलय पावक दाह बिजली
द्वार तक आये सभी
किन्तु हमने आँख के
मोती नहीं खोये

और फिर भी हम नहीं रोये

हम न थे पत्थर समय
साक्षी रहा हर मोड़ पर
टूटकर बिखरे नहीं बस
बात अपनी छोड़कर

कौन अपना बन सके
इस बात को लेकर
आज तक हमने किसी के
पग नहीं धोये

और फिर भी हम नहीं रोये

टूटता है स्वप्न दर्शी मन

टूटता है स्वप्न दर्शी मन

दूर तक आक्रोश का सागर
विश्बुझी हर लहर चलती है
नाव पर पतवार पथराई
पार जाने को तरसती है

दृष्टि को लगता किनारा मिल गया
किन्तु बढती दूरियां प्रतिक्षण
टूटता है स्वप्न दर्शी मन

क्षितिज तक है हवन की बेदी
हो रही आहुति नमन आचरण की
त्याग तप पर धूल की परते
होड़ है निर्लज्जता के वरन की

आरती के बोल घुटने टेकते
किस विकृति के पूजने होंगे चरण
टूटता है स्वप्न दर्शी मन

Saturday, June 19, 2010

मछली कहती करुण कहानी

जल की बाढ़ जलाशय प्रहरी
दूर दूर तक नदिया गहरी
ताल तलैया छलके पानी
मछली कहती करुण कहानी

जल में मोती मानिक पाले
सो सो साज सिंगर सम्हाले
कब तक चौखट दरवाजे पर
सुख दुःख सहती पड़ी रहोगी

कब तक अग्नि परीक्षा डौगी
बलिवेदी पर चढ़ी रहोगी
अब तो चुप चुप वार सहो मत
बाहर आओ जल की रानी


ताल तलैया छलके पानी
मछली कहती करुण कहानी

बाहर आने का डर कैसा
जल के घर में भी तो डर है
जल की सीमाओं को तोड़ो
बाहर देखो मार्ग प्रखर है


तुम्हे नहीं भय लगता है क्या
जल के भीतर घड़ियालो से
दरी सहमती क्यों रहती हो
बाहर लहराते ब्यालो से

अपनी सीमाए पहचानो
रोने की छोडो नादानी

ताल तलैया छलके पानी
मछली कहती करुण कहानी

बादल बरसकर ऐसा क्या कह गए

बादल बरसकर ऐसा क्या कह गए
स्नेह के कुञ्जवन झुलसकर रह गए

कुछ तो अनहोनी हुयी
धरती आकाश में
कहीं तो छूटा कुछ
दोनों की आस में

आओ कजरारे
मेघो से बोल दे
कहने और सहने की
सीमाएं तोल दे

और अनुबंध ऐसा बादलों पर आंक दे
कोई न कहे हम मौन रहे सह गए

देने वाले का
यशगान बहुत होता है
लेने वाले का मान
मन ही मन रोता है

ऐसे ही कितने लोग
दाह में जले हैं
हर एक मन में यहाँ
जंगल पले हैं

सोये जागे से किंशुक कचनार सभी
पवन तरंगो में अनचाहे बह गए


बादल बरसकर ऐसा क्या कह गए
स्नेह के कुञ्जवन झुलसकर रह गए

अमलतासी साँझ

अमलतासी साँझ हो या
गुलमोहर से दिन
दूर से ही ये लुभाते
ठहरते पल छिन

सुखद स्मृतियाँ कभी
अपना बनाती हैं
और फिर कचनार सी
खिलती लजाती हैं

ये कभी किसकी हुई हैं
और कितने दिन

घोलकर मधु आज
महुआ कर रहा बातें
और कितने दिन चलेंगी
रसभरी घातें

कौन सी गाथा लिखेंगे
ये परागी दिन

हम कहीं भी हो संदेसा
पवन लाती हैं
यह बिना बोले बहुत
कुछ बोल जाती हैं

यह अबोली नेह पाती
बांटती अनगिन 


अमलतासी साँझ हो या 
गुलमोहर से दिन 
दूर से ही ये लुभाते
ठहरते पल छिन

लौट आओ गीत मेरे

लौट आओ गीत मेरे
कुछ नए सम्बन्ध कुछ अनुबंध लिखने हैं अभी तो

बैठकर आओ कहीं तो
बीतते पल को निहारें
दो घडी को ही सही
अपने पराये को बिसारे
कुछ करे ऐसा धरा यह याद रक्खे हम सभी को
लौट आओ गीत मेरे

यदि समय की क्रूर धरा
में बहे तो व्यर्थ होगा
जागरण का मंत्र देना
मनुजता का अर्थ होगा
इस नए सन्दर्भ के अनुरूप बनाने हैं अभी तो
लौट आओ गीत मेरे

ओ पखेरू पंख देदे

ओ पखेरू पंख देदे
कुछ मुझे भी तो गगन के देवता से पूछना है

सृष्टि की रचना
बहुत आसान थी क्या?
या की कौतुहल
हमारी सर्जना है

हम बने निरुपाय सुख
की छांव में जो भागते हैं
भागना ही क्या हमारी
नियति की अभिव्यंजना है

अब उलझना है कहाँ तक भंवर जालों में
बस पखेरू यही सब तो पूछना है

प्रश्न चारो और बिखरे
निरुत्तर हैं सब दिशाए
मोतियों से टूट कर बिखरे हुए
सम्बन्ध बोझिल भावनाए

कौन करता डोरियो को
खींचने का खेल
और कठपुतले बने
सब नाचते बेमेल

बंद क्यों हैं नेह के सीधे सरल सब रास्ते
बस पखेरू यही सब तो पूछना है

ओ पखेरू पंख देदे 
कुछ मुझे भी तो गगन के देवता से पूछना है

शिवानी का अवतार

आरती का दिया बन उजाला करो
रौशनी चूम ले बढ़ तुम्हारे चरण

फूल से शूल से
सारा जीवन भरा
लक्ष्य अपना कभी
बस भुलाना नहीं

तुम प्रगति पंथ की
हो सुनहरी किरण
धुंध से रत से
डर न जाना कहीं

शक्ति हो तुम शिवानी का अवतार हो
है तुम्ही से सजा सृष्टि का यह चमन

त्याग से स्नेह सौहार्द
से सब सहो
बस अनाचार पर
सर ने झुकने लगे

देखते ही रहे तह
धरा यह गगन
मान सम्मान के
फूल झरने लगे

आग अंगार सबको बुझाती हुई
बस प्रगति पंथ का अब करो तुम वरन

आरती का दिया बन उजाला करो
रौशनी चूम ले बढ़ तुम्हारे चरण

और मौसम मुह छिपाता चल दिया

हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपाता चल दिया

दे गयी संत्रास बर्फीली हवाएं
चुभ रहा है चांदनी का रूप भी
लग रहा औसा की लुक छिप कर कहीं
छल रही है गुनगुनाती धुप भी

सृष्टि की रचना सरलतम आदमी
इसे जीने के लिए क्यों छल दिया

हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपाता चल दिया

स्वर्ण अपने में स्वयं पहचान है
आग में ताप कर सदा ही निखरता
आदमी भी समय सागर में यहाँ
बूंद बन कर झिलमिलाता बिखरता

मोम सा जल कर पिघलने के लिए
जिंदगी को भाग्य का संबल दिया
हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपता चल दिया

कायरो के हाथ में शमशीर भी सजती नहीं है

यातना से यंत्रणा से जूझता अब देश
बंशी चैन की बजती कहीं है

उमड़ आया है यहाँ
सैलाब सडको पर
बंद कमरों में उधर
संगीत चलता है

अनिश्चय की आग में
जलती युवा पीढ़ी
तपने को हाथ अब
आदेश मिलता है

अब करो आह्वान फिर नटराज का
कथा भस्मासुर, अधिक चलती नहीं है

अस्मिता से देश की
उपहास रोको
दांव पर हर एक घर की
लाज रोको
जाती भाषा प्रान्त
सब रूठे पड़े हैं
द्वेष के शर राह
पर तिरछे अड़े हैं

भूल कर सत्ता पिपासा मौन बैठो
कायरो के हाथ में शमशीर भी सजती नहीं है

यदि जीवन में प्यार न होता

नेह डोर से बंधे न होते
तो जीवन क्या जीवन होता

कैसे राग मल्हार समझते
कैसे गाते सुखद प्रभाती
कैसे सपनो के सागर में
जीवन की नैया लहराती

सुख दुःख सब सुने रह जाते
यदि जीवन में प्यार न होता

नेह डोर से बंधे न होते
तो जीवन क्या जीवन होता

विरहा की भीगी तानो में
मुखर न होती मन की भाषा
और प्रतीक्षारत चातक भी 
क्यों गाता मन की अभिलाषा

विरह मिलन की निर्झरनी में
जीने का आधार न होता
नेह डोर से बंधे न होते
तो जीवन क्या जीवन होता

धरती के स्नेहिल रिश्तो को
मोहजाल का नाम न देना
यह बंधन इतिहास बनाते 
सजता घर का कोना कोना

मरघट सा सूनापन होता
यह सुन्दर संसार न होता
नेह डोर से बंधे न होते
तो जीवन क्या जीवन होता



दीपक मांग रहा उजियारा

दीपक मांग रहा उजियारा

बाती झिलमिल रत अँधेरी
नेह बूंद को भटके मांझी
कैसे कहे अँधेरे से वह
ज्योति राशी कब किसने बांटी

अंधियारे ने राह न रोकी
दीपशिखा बस जलती आई
यही ज्योति का दान दिए को
अपना बनकर छलती आई

आज उजाले के द्वारे पर दीपक ने है हाथ पसारा
दीपक मांग रहा उजियारा

सत्ता सुख की महिमा ऐसी
बचन बद्धता धुल हो गयी
जिसको गरिमा मिली लगा बस
यही समय की भूल हो गयी

क्या सोने वालो को आगे
बढ़कर स्वयं जगाना होगा
पवन पुत्र को शक्ति और
क्षमताये फिर समझाना होगा

उठो! नेह से दीपक भर दो जले दिया मेरे अन्गियारा
दीपक मांग रहा उजियारा

Thursday, June 10, 2010

क्षीर नीर का ज्ञानी हंसा

सपनो में खोया जग सारा
जागे कौन जगाये कौन

मै मेरा सुख ने तो सारी
सीमाओं को तोडा है
और समय ऐसा निर्मोही
कहीं न कुछ भी छोड़ा है

भौतिक सुख की एक धुरी पर
सबका जीवन घूम रहा
ऐसे में चुप रहना अच्छा
किसे कहाँ समझाए कौन

यही देश है क्या जिसको
सोने की चिड़िया कहते थे
चौथेपन में राजा भी
सन्यासी बन कर रहते थे

छोटा जीवन आशाओं की
बेल दूर तक फ़ैल रही
यह संकेत नहीं शुभ फिर भी
अच्छा बुरा बताये कौन

महाभोज की पंगत में
कौवों गिद्धों की दावत है
क्षीर नीर का ज्ञानी हंसा
होता प्रतिपल आहत है

यही विसंगति देश और मिट्टी
से नाता तोड़ रही
मरुथल के प्यासे हिरना को
जल प्रवाह दिखलाये कौन


सपनो में खोया जग सारा 
जागे कौन जगाये कौन

छालो की सौगात

पाती में लिखकर भेजी क्यों
तुमने जग की करुण कहानी
एक तुम्हारा हस्ताक्षर ही
दर्पण सा सब कुछ कह देता

ओस भरी पंखुरियों पर जब,
पहली किरण विहंसती आई
भीगी पलकों के सपनो में
सुरभि कोष की हुयी विदाई

यही एक क्षण अनजाने ही
युग युग की गाथा कह देता

एक तुम्हारा हस्ताक्षर ही 
दर्पण सा सब कुछ कह देता

धुआं धुआं बदल बिजली से
जल जाने की बात न कहते
अंगारों पे चलने वाले
छालो की सौगात न सहते

समय बिखरते तिनको से भी
सुन्दर नीड़ सृजित कर देता
एक तुम्हारा हस्ताक्षर ही 
दर्पण सा सब कुछ कह देता

कृपन बुद्धि को लिखकर भेजी
बात कौन समझा पायेगा
इनका उसर बंजर मन क्या
हरियाली को सह पायेगा

यह तो बस इतना समझेंगे
कौन इन्हें है कितना देता
एक तुम्हारा हस्ताक्षर ही 
दर्पण सा सब कुछ कह देता

मुट्ठियों में व्यथा

चलो फिर गगन को धरा पर उतारें

सृजन है अधुरा अधूरी कथा है
जनम से बंधी मुट्ठियों में व्यथा है
नयन सीपियों ने छिपाए हैं मोती
बिखरने न पायें बड़ी बात होगी

कि फिर प्राण वीणा पे स्वर को संवारें
चलो फिर गगन को धरा पर उतारें

कहाँ खो गए स्वर कहाँ राग खोये
उनीदे नयन ने न सपने संजोये
खुले द्वार कोई नयी राह निकले
दिशाओं में फैली तमस टूट बिखरे

कि फिर नीड़ में पंछियों को पुकारें
चलो फिर गगन को धरा पर उतारें

Monday, June 7, 2010

सम्बन्ध सपने हो गए

प्रेरणा के स्नेह के सम्बन्ध सपने हो गए

थाम कर अंगुली बढ़ाये
पग कभी जिसने
हो गया सक्षम गले
तक हाथ उसका आ गया

फूल के मकरंद में
कैसी कलुषता भर गयी
तितलियों के होठ पर
छूते पसीना आ गया

बांसुरी के मधुर स्वर की चह में
वेणुवन में हम उलझ कर राह गए
प्रेरणा के स्नेह के सम्बन्ध सपने हो गए

शांत गहरी झील में
पत्थर न फेको इस तरह
सैकड़ो घेरे सवालो के
खड़े हो जायेंगे

मनुजता का क्षरण आँखे बंद हैं
जाग कर भी यो लगा सब सो गए
प्रेरणा के स्नेह के सम्बन्ध सपने हो गए

बोल मेरी मछली कितना पानी

बोल मेरी मछली कितना पानी

लहर लहर के साथ बहे तू
जाल से मोह न छूते तेरा
कूल किनारे छलते जाये
बना बना कर जाल का घेरा

खेल खेल में थाह बता दे चुप रहना तो है नादानी
बोल मेरी मछली कितना पानी

आगे पीछे जल ही जल है
थाह न नापो बढ़ते जाओ
लहरों पर भी बस तुम अपनी
यश की गाथा गढ़ते जाओ
गले गले तक जब आ जाये तब मत पूछो कितना पानी
बोल मेरी मछली कितना पानी

यह तो जल है सीपी घोंघे
शंख सभी का आश्रयदाता
पर सीधे जल में भी बिच्छू
सीधी राह नहीं चल पाता
गहरे पैठो तब समझोगे जल की महिमामयी कहानी
बोल मेरी मछली कितना पानी

Saturday, June 5, 2010

समय को तो बीतना है

समय का क्या समय को तो बीतना है

सुखद से दो पल
हवा में उड़ न जाये
और फिर दुःख
दाह में हम घिर न जाये

इस लिए हम
नित नए विधान रचते
भागते पल को
पकड़ने को ललकते

पर समय तो वीतरागी है चिरंतन
इसे तो हर एक क्षण में रीतना है
समय का क्या समय को तो बीतना है

बीतता हर पल यहाँ
इतिहास बनता
रत दिन का खेल
बनता है बिगड़ता

यह रुके तो यहीं
जन जीवन रुकेगा
कौन आशावान हो कर
जी सकेगा

बुलबुले हम हो भले ही समय सागर के
पर हमे तो भंवर में भी जूझना है जितना है
समय का क्या समय को तो बीतना है

कहाँ से भटक आये कौन डगर भूले

जंगल वन उपवन विहंसते अमलतास 
घर में आँगन में नागफनी फूले


बंद पंखुरियो में सपने सजाये हुए 
मौन अलसाई सी सुरभि में समाये हुए 
प्रेम भरी पाती सा तुमने लुभाया है
जैतूनी अंगराज तुम में समाया है


कैसे वैरागी से अलग थलग दूर खड़े
कहाँ से भटक आये कौन डगर भूले  

जंगल वन उपवन विहंसते अमलतास 
घर में आँगन में नागफनी फूले

अपने इन शरबती फूलो से अमलतास
आँगन में फैली नागफनी से ढँक दो 
इनके कंटीले पथरीले अहं पर 
अपनी सुकोमल सी पंखुरियां रख दो 

हरियाले अंचल को लहराती पवन वधू 
हंस हंस हर पेगो पर गगन छोर छू ले 
जंगल वन उपवन विहंसते अमलतास 
घर में आँगन में नागफनी फूले

 

बेगाने भी मीत

आंसू बन कर स्वप्न बहे कुछ
कुछ आकुल हो गीत हो गए

मन सरसिज की पंखुरियो पर
सुख दुःख अब तक ठहर न पाए
कितना पंकिल रहे सरोवर
लहरों ने भी जाल बिछाए

पर जीवन की लय गति मिलकर
जाने कब संगीत बन गए

आंसू बन कर स्वप्न बहे कुछ
कुछ आकुल हो गीत हो गए 

अपना तरकश तीर लिए सब
आर पार की बात कर रहे
मीठी मधुमिश्रित वाणी से 
अपने बन कर नित्य छल रहे 

इसी अनोखी दुरभिसंधि में
बेगाने भी मीत बन गए 
आंसू बन कर स्वप्न बहे कुछ
कुछ आकुल हो गीत हो गए 

दे रही चहु और फेरे

धार पर शमशीर के अब तक चली हूँ
इसलिए अब पैर में चुभता न कोई शूल मेरे

यह युगों से जूझती जलती कथा है
भूमिजा से चल रही दारुण व्यथा है 
वह वनों में भटकती असहाय सीता
रख सकी जो मान पति का थी पुनीता

उस पवित्रा ने न फिर से देह धरी
इसलिए उस सी न जन्मी और नारी
और द्वापर में सती का रूप बदला
द्रोपदी का चीर हरने को यहाँ पुरुषत्व मचला

इस घिनौने कर्म पर रखी पुरुष ने मौन वाणी
आग सी मचली कि सोते से जगे जैसे भवानी
जाग कर तबसे बराबर दे रही चहु और  फेरे

धार पर शमशीर के अब तक चली हूँ
इसलिए अब पैर में चुभता न कोई शूल मेरे 

मौन रह कर अनुगमन अब तक किया है 
भूल थी बस हलाहल को मधु समझ कर पी लिया है
पी लिया विष जल उठी हैं कामनाये
चौंक कर जागी झुलसती सुलगती सी भावनाए

अब सुनहले स्वप्न दे चलना कठिन है
घुन्घरुओ की खनक ले चलना कठिन है
बढ़ चुका है मान हमसे देश घर परिवार सबका 
सर उठा कर हम खड़े हैं छोड़ कर अब मोह घर का 

देवियों की भांति पुजने के लिए आये नहीं हम 
दानवी कह कर न सर पर अब चढाओ धुल मेरे 
धार पर शमशीर के अब तक चली हूँ
इसलिए अब पैर में चुभता न कोई शूल मेरे 


पीढियों से अनकही

क्यों प्रभंजन बन गयी शीतल हवाएं
त्रासदी कुछ तो भयंकर ही रही होगी

चूड़ियाँ कुमकुम महावर से सजाकर
पायलों की बेड़ियाँ अब तक पिन्हाई
हर समय एक खुबसूरत भूल ले कर
हर प्रगति के पथ की सीमा बनायीं

बुद्धि बल से हीन अपने ही घरो में
पल रही थी जो घरेलू दासियों सी
सर उठाया है उन्ही ने बात करने को
बात वह जो पीढियों से अनकही होगी


क्यों प्रभंजन बन गयी शीतल हवाएं 
त्रासदी कुछ तो भयंकर ही रही होगी

बंद घर में बुद्धि हो या शक्ति दोनों छीजती हैं
आग मन की विवश हो कर आंसुओ में भीगती है 
अब समय बदला कि चौखट द्वार सबका मोह छूटा
कुछ करें आगे बढे यह प्रण किया सबने अनूठा 

इस अनूठी कामना के दीप लेकर चल रही हैं 
बेटियां अपने वतन की नाम रौशन कर रही हैं
रौशनी दो अब अँधेरे का पड़े साया न इन पर 
ये सही हक़दार सदियों से रही होंगी 

क्यों प्रभंजन बन गयी शीतल हवाएं 
त्रासदी कुछ तो भयंकर ही रही होगी