Saturday, March 8, 2014

मैं अपराजिता !

मैं अपराजिता !

मिट्टी में पानी में सबमें अलंकृता

कण कण संजोया है,
दुखते हुए मन में ।
प्रीति राग बोया है,
फिर भी हर क्षण में ।

धरती सा धीरज,
इसे तोड़ नहीं पाओगे ।
मोह कहो माया कहो,
छोड़ नहीं पाओगे ।

प्रकृति ने हर जगह, लिख दिया मेरा पता ।

फूलों से सुरभित,
काँटों से घेरी हुयी ।
आदि से अंत तक,
मेरी ही फेरी हुयी ।

सारा संसार मेरी,
पगध्वनि पर नाचा है ।
गीता रामायण सबने,
मुझे ही बांचा है ।

सूरज कि किरण में, चांदी सी सुष्मिता ।

मैं अपराजिता !