और मौसम मुह छिपाता चल दिया
दे गयी संत्रास बर्फीली हवाएं
चुभ रहा है चांदनी का रूप भी
लग रहा औसा की लुक छिप कर कहीं
छल रही है गुनगुनाती धुप भी
सृष्टि की रचना सरलतम आदमी
इसे जीने के लिए क्यों छल दिया
हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपाता चल दिया
स्वर्ण अपने में स्वयं पहचान है
आग में ताप कर सदा ही निखरता
आदमी भी समय सागर में यहाँ
बूंद बन कर झिलमिलाता बिखरता
मोम सा जल कर पिघलने के लिए
जिंदगी को भाग्य का संबल दिया
हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपता चल दिया
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