Saturday, June 19, 2010

और मौसम मुह छिपाता चल दिया

हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपाता चल दिया

दे गयी संत्रास बर्फीली हवाएं
चुभ रहा है चांदनी का रूप भी
लग रहा औसा की लुक छिप कर कहीं
छल रही है गुनगुनाती धुप भी

सृष्टि की रचना सरलतम आदमी
इसे जीने के लिए क्यों छल दिया

हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपाता चल दिया

स्वर्ण अपने में स्वयं पहचान है
आग में ताप कर सदा ही निखरता
आदमी भी समय सागर में यहाँ
बूंद बन कर झिलमिलाता बिखरता

मोम सा जल कर पिघलने के लिए
जिंदगी को भाग्य का संबल दिया
हम धरा से गगन तक जुड़ते रहे
और मौसम मुह छिपता चल दिया

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