फिर से बरसने को घटायें
याद आयीं झील सी आँखे
कि जिसमे स्वप्न पलते थे
और काली पुतलियो में भी
सुनहरे दीप जलते थे
टूटती हैं बूंद झिलमिल
कांपती बहती हवाएं
घूम घिर कर आ गयी
फिर से बरसने को घटायें
तुम कहाँ हो द्वार, घर
आँगन सभी तो पूछते हैं
और हम तट पर खड़े
फिर भी भंवर में जून्झते हैं
बिखरते मन को कहाँ तक
ज्ञान दे सकती ऋचाएं
घूम घिर कर आ गयी
फिर से बरसने को घटायें
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