Tuesday, May 25, 2010

आओ लौट अपने घर चले

ढल चुका सूरज हुयी परछाईयाँ तिरछी
मीत आओ लौट अपने घर चले


पुलिन पर रुक कर 
सहारे की न करना बात
क्या पता अंगुली पकड़ कर
कौन दे आघात
सामने सिंदूर बिखरा
शिथिल होता व्योम
पंख खोले पंख तोले
विहाग उड़ते मौन


ये सभी बेमेल सपना सा बने जब तक
मीत आओ लौट अपने घर चले


हम समय के साथ
चलने का लिए अनुबंध
चले या दौड़े, नहीं
होते कभी स्वच्छंद
पैर पथरीली डगर पर
रुक नहीं पाते
यह मनोबल था
कहीं भी झुक नहीं पाते


बिंध न जाये शूल से मन के सुकोमल छंद
मीत आओ लौट अपने घर चले




ढल चुका सूरज हुयी परछाईयाँ तिरछी
मीत आओ लौट अपने घर चले

No comments:

Post a Comment