Saturday, October 5, 2013

कह मेरे मन, बात मन की कह।

कह मेरे मन, बात मन की कह।
झेलता आया बहुत सी,
आंधियां तूफ़ान।
हर जगह बस बचाता आया,
स्वतः की आन।

इस प्रभंजन से निकल, अब और कुछ मत सह,
कह मेरे मन, बात मन की कह।

कहाँ बिछती पंखुरियां,
जो पैर सहलाये।
कहाँ अंगारे न तपते,
पग न झुलसाये।

अपेक्षाओ से निकल तू, राह अपनी गह,
कह मेरे मन, बात मन की कह।

क्षितिज तक उतरा हुआ,
आकाश देखा है।
नील सागर का उमड़ता,
ज्वार देखा है।

अब पुलिन का सहारा भी छोड़ कर तू बह।
कह मेरे मन, बात मन की कह।

1 comment:

  1. मछली मछली कित्ता पानी
    एड़ी तक …
    मछली मछली कित्ता पानी
    कमर तक …
    मछली मछली …डुबक ……।

    बचपन हो या युवावस्था या फिर ढलती उम्र
    जीवन का पानी कभी एड़ी तक
    कभी कमर तक और कभी डुबक
    सब ख़त्म !
    पर मछली,मछली का खेल,जीवन के रास्ते शाश्वत हैं
    http://www.parikalpnaa.com/2013/12/blog-post_5.html

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