पिता कौन सा घर है मेरा
किस घर की सांकल खटकाऊ,
किस चौखट पर शीश झुकाऊ।
कहाँ सुरक्षित रह पाउंगी,
कहाँ न दुत्कारी जाउंगी।
बड़ी दुधारी राह बन गयी, कितने ही प्रश्नों ने घेरा।
पिता कौन सा घर है मेरा।
यहाँ पराया धन कहलायी,
वहां पराये घर की बेटी।
कहीं न पैर टिके धरती पर,
कहने में होती है ठेठी।
मन बीहड़ में भटक रहा है, जैसे बंजारे का डेरा।
पिता कौन सा घर है मेरा।
तुमने कन्या दान कर दिया,
पुण्य किया दानी कहलाये।
तुम तो माँ भाभी सबको भी,
दान पुण्य में ही ले आये।
अब तो न्याय करो बेटी संग, मिटे धुंधलका मिटे अँधेरा।
पिता कौन सा घर है मेरा।
दान दहेज़ नहीं बस कुछ भी,
स्वाभिमान की आस जगी है।
न्याय समय से हो न सकेगा,
कुछ करने की प्यास जगी है।
अपनी राह स्वयं चलने को, आज बढ़ रहा है पग मेरा।
पिता कौन सा घर है मेरा।
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